एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Imagesपिछले दिनों देवबंद में जब मायावती, अखिलेश यादव और अजीत सिंह की संयुक्त रैली
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पिछले दिनों देवबंद में जब मायावती, अखिलेश यादव और अजीत सिंह की संयुक्त रैली हुई और जैसे ही अजीत सिंह ने मंच पर चढ़ने की कोशिश की, बीएसपी के एक नेता ने अजीत सिंह से अपने जूते उतारने के लिए कहा. मायावती को ये पसंद नहीं है कि वो जब मंच पर चढ़ें तो उनके अलावा कोई वहां जूते पहने रहे.
अजीत सिंह को अपने जूते उतारने पड़े तब जा कर उन्हें मंच पर मायावती के साथ खड़े होने का मौक़ा मिल पाया. ये न सिर्फ़ एक महिला की सफ़ाई के प्रति प्रतिबद्धता, बल्कि संख्या के बल पर देश में निरंतर बदलने वाले सामाजिक सहभागिता के बदलते हुए समीकरणों को भी दर्शाता है.
मायावती के जीवनीकार अजय बोस की मानी जाए तो सफ़ाई के प्रति उनकी इस 'सनक' के पीछे भी एक कहानी है.
अजय बोस 'बहनजी: अ पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी ऑफ़ मायावती' में लिखते हैं, ''जब मायावती पहली बार लोकसभा में चुन कर आईं तो उनके तेल लगे बाल और देहाती लिबास तथाकथित सभ्रांत महिला सांसदों के लिए मज़े की चीज़ हुआ करते थे. वो अक्सर शिकायत करती थीं कि मायावती को बहुत पसीना आता था. उनमें से एक ने एक वरिष्ठ महिला सांसद से यहां तक कहा था कि वो मायावती से कहें कि वो अच्छा 'परफ़्यूम' लगा कर सदन में आया करें.''
मायावती के नज़दीकी लोगों के अनुसार बार-बार उनकी जाति का उल्लेख और उनको ये आभास दिलाने की कोशिश कि दलित अक्सर गंदे होते हैं, का उन पर दीर्घकालीन असर पड़ा. उन्होंने हुक्म दिया कि उनके कमरे में कोई भी व्यक्ति वो चाहे जितना बड़ा हो, जूता पहन कर नहीं जाएगा.
मायावती की एक और जीवनीकार नेहा दीक्षित ने भी कारवां पत्रिका में उन पर लिखे लेख 'द मिशन - इनसाइड मायावतीज़ बैटल फ़ॉर उत्तर प्रदेश' में लिखा था, ''मायावती में सफ़ाई के लिए इस हद तक जुनून है कि वो अपने घर में दिन में तीन बार पोछा लगवाती हैं.''
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesजब गिरवाई वाजपेयी की सरकार
मायावती के मिजाज़ के बारे में भविष्यवाणी करना बहुत कठिन है. बात 17 अप्रैल 1999 की है. राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से लोकसभा में विश्वास मत लेने के लिए कहा था.
सरकार इसके लिए आश्वस्त भी थी, क्योंकि चौटाला एनडीए खेमे में वापस आने का ऐलान कर चुके थे और मायावती की तरफ़ से संकेत आए थे कि उनकी पार्टी मतदान में भाग नहीं लेगी.
उस दिन संसद भवन के पोर्टिको में जब अटल बिहारी वाजपेयी अपनी कार में बैठ रहे थे तो पीछे आ रही मायावती ने चिल्ला कर कहा था 'आपको चिंता करने की ज़रूरत नहीं.'
मतदान से कुछ समय पहले संसदीय कार्य मंत्री कुमारमंगलम ने बहुजन समाज पार्टी के सांसदों से बात कर कहा, अगर आपने सहयोग किया तो शाम तक मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हो सकती हैं.
सरकार के खेमे में बढ़ती गतिविधियों को देख कर शरद पवार मायावती के पास पहुंचे. मायावती ने उनसे सीधा सवाल किया, “अगर हम सरकार के ख़िलाफ़ वोट करते हैं तो क्या सरकार गिर जाएगी?”
पवार ने जवाब दिया, “हाँ”.
जब बहस के बाद वोटिंग का समय आया तो पूरे सदन में सन्नाटा छाया हुआ था.
मायावती आरिफ़ मोहम्मद ख़ां और अकबर अहमद डंपी की तरफ़ देख कर गरजीं, 'लाल बटन दबाओ.' ये उस ज़माने की सबसे बड़ी 'राजनीतिक कलाबाज़ी' थी.
जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का परिणाम 'फ़्लैश' हुआ तो वाजपेयी सरकार सरकार विश्वास मत खो चुकी थी. मायावती को इस तरह के बड़े फ़ैसले लेने से कभी परहेज़ नहीं रहा है.
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इमेज कॉपीरइटSanjay SharmaImage caption कांशीराम के साथ मायावती कांशीराम से मायावती की पहली मुलाक़ात
इसी तरह का एक बड़ा फ़ैसला उन्होंने दिसंबर, 1977 की एक ठंडी रात में किया था.
हुआ ये थे कि एक दिन पहले दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में 21 साल की मायावती ने उस समय के स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण पर ज़बरदस्त हमला बोला था.
राजनारायण अपने भाषण में दलितों को बार-बार 'हरिजन' कहकर संबोधित कर रहे थे. अपनी बारी आने पर मायावती चिल्लाईं, “आप हमें 'हरिजन' कह कर अपमानित कर रहे हैं.”
एक दिन बाद रात के 11 बजे किसी ने उनके घर की कुंडी खटखटाई.
जब मायावती के पिता प्रभुदयाल दरवाज़ा खोलने आए तो उन्होंने देखा कि बाहर मुड़े-तुड़े कपड़ों में, गले में मफ़लर डाले, लगभग गंजा हो चला एक अधेड़ शख़्स खड़ा था.
उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि वो कांशीराम हैं और 'बामसेफ़' के अध्यक्ष हैं. उन्होंने कहा कि वो मायावती को पुणे में एक भाषण देने के लिए आमंत्रित करने आए हैं.
उस समय मायावती दिल्ली के इंदरपुरी इलाक़े में रहा करती थीं. उनके घर में बिजली नहीं होती थी. वो लालटेन की रोशनी में पढ़ रही थीं.
कांशीराम की जीवनी कांशीराम 'द लीडर ऑफ़ दलित्स' लिखने वाले बद्री नारायण बताते हैं, “कांशीराम ने मायावती से पहला सवाल पूछा कि वो क्या करना चाहती हैं. मायावती ने कहा कि वो आईएएस बनना चाहती हैं ताकि अपने समुदाय के लोगों की सेवा कर सकें.”
'कांशीराम ने कहा, “तुम आईएएस बन कर क्या करोगी? मैं तुम्हें एक ऐसा नेता बना सकता हूं जिसके पीछे एक नहीं, दसियों 'कलेक्टरों' की लाइन लगी रहेगी. तुम सही मायने में तब अपने लोगों की सेवा कर पाओगी.”
मायावती की समझ में तुरंत आ गया कि उनका भविष्य कहां है. हालांकि उनके पिता इसके सख़्त ख़िलाफ़ थे. इसके बाद मायावती कांशीराम के आंदोलन में शामिल हो गईं.
मायवती अपनी आत्मकथा 'बहुजन आंदोलन की राह में मेरी जीवन संघर्ष गाथा' में लिखती हैं कि एक दिन उनके पिता उन पर चिल्लाए - तुम कांशीराम से मिलना बंद करो और आईएएस की तैयारी फिर से शुरू करो, वरना तुरंत मेरा घर छोड़ दो.
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इमेज कॉपीरइटSanjay SharmaImage caption कांशीराम के साथ मायावती घर छोड़ कर कांशीराम के पास आईं
मायावती ने अपने पिता की बात नहीं मानी. उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और पार्टी ऑफ़िस में आकर रहने लगीं.
उनकी जीवनी लिखने वाले अजय बोस अपनी किताब 'बहनजी - अ पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी' में लिखते हैं, “मायावती ने स्कूल अध्यापिका के तौर पर मिलने वाले वेतन के पैसों को उठाया जिन्हें उन्होंने जोड़ रखा था, एक सूटकेस में कुछ कपड़े भरे और उस घर से बाहर आ गईं जहां वो बड़ी हुई थीं.”
कांशीराम की जीवनी 'कांशीराम लीडर ऑफ़ द दलित्स' लिखने वाले बद्री नारायण बताते हैं कि मायावती ने वर्णन किया है कि उस समय उनके क्या संघर्ष थे और लोग उनके बारे में क्या सोचते थे.
एक लड़की का घर छोड़कर अकेले रहना उस समय बहुत बड़ी बात होती थी. वो असल में किराए का एक कमरा लेकर रहना चाहती थीं लेकिन इसके लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. इसलिए पार्टी आफ़िस में रहना उनकी मजबूरी थी. उनके और कांशीराम के बीच बहुत ही अच्छी 'केमिस्ट्री' थी
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Image caption कांशीराम कांशीराम के लिए 'पज़ेसिव' थीं मायावती
दोनों में शुरू से बहुत स्नेह था लेकिन दोनों के बीच लड़ाइयां भी खूब होती थीं.
अजय बोस लिखते हैं, “कांशीराम गर्म मिजाज़ के शख़्स थे. उनकी ज़ुबान भी ख़राब थी. नाराज़ होने पर उन्हें अपने हाथ इस्तेमाल करने में भी कोई परहेज़ नहीं था. मायावती भी किसी से दबने वाली नहीं थीं. वो भी कांशीराम के लिए उतने ही चुनिंदा शब्दों का इस्तेमाल करती थीं, जितने कांशीराम करते थे. मायावती कांशीराम के प्रति बहुत 'पज़ेसिव' थीं. अगर कोई भी शख़्स उनके पास पांच मिनट से अधिक बैठ जाता था, तो वो कमरे में किसी न किसी बहाने से आ जाती थीं.”
मायावती और कांशीराम के उन दिनों के सम्बन्धों का ज़िक्र नेहा दीक्षित ने भी 'कारवां' पत्रिका में मायावती पर छपे अपने लेख में किया है.
दीक्षित लिखती हैं, “जब कांशीराम अपने हुमायूं रोड वाले घर में आए तो मायावती को वहां रहने के लिए कोई कमरा नहीं दिया गया. जब कांशीराम भारतीय राजनीति के दिग्गजों से अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर मंत्रणा कर रहे होते थे तो मायावती घर के पिछवाड़े के आंगन में दरी पर बैठ कर ग्रामीण इलाकों से आने वाले कार्यकर्ताओं के साथ बात कर रही होती थीं. कांशीराम अपने घर के फ़्रिज को 'लॉक' कर चाबी अपने पास रखते थे. उन्होंने मायावती और अपने दूसरे सहयोगियों को निर्देश दे रखे थे कि फ़्रिज में से उन लोगों को ही कोल्ड ड्रिंक 'सर्व' की जाए जिनसे वो अपने ड्राइंग रूम में मिलते हैं.”
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesअपने हाथों से कांशीराम को खाना खिलाती थीं मायावती
कांशीराम के अंतिम दिनों में जिस तरह मायावती ने उनकी सेवा की, उसकी मिसाल मिलना बहुत मुश्किल है.
अजय बोस लिखते हैं, “अपने अंतिम दिनों में कांशीराम फ़ालिज से गिर जाने के कारण क़रीब-क़रीब अपाहिज हो गए थे. वो पूरे तीन सालों तक मायावती के घर में रहे. जिस तरह से मायावती अपने हाथों से उनके कपड़े धोती और उन्हें खाना खिलाती, वो बताता था कि कांशीराम के लिए उनके दिल में क्या जगह है. उस समय कांशीराम उन्हें कुछ देने की स्थिति में नहीं थे. मायावती जो कुछ भी उनके लिए कर रही थीं, वो सिर्फ़ उनके प्रति स्नेहवश कर रही थीं.”
मायावती ने पहली बार 1985 में बिजनौर से लोकसभा के लिए उप-चुनाव लड़ा था लेकिन वहां वो जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार से हार गईं थीं. 1989 में वो बिजनौर से ही चुनाव जीत कर पहली बार लोकसभा में पहुंची थीं. उस ज़माने में मायावती बात-बात पर लोकसभा के 'वेल' में पहुंच जाती थीं.
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इमेज कॉपीरइटGetty /PTIमायावती की ज़िंदगी का सबसे बड़ा अपमान
1993 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए दिल्ली को अशोका होटल में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के बीच एक चुनावी गठबंधन हुआ.
चुनाव में समाजवादी पार्टी को 109 और बहुजन समाज पार्टी को 67 सीटें मिलीं. दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई लेकिन ये प्रयोग बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. दोनों दलों के बीच मतभेद पैदा होने लगे.
अजय बोस लिखते हैं, “कांशीराम जब भी लखनऊ आते थे, वो कभी मुलायम सिंह यादव से मिलने उनके घर नहीं जाते थे. मुलायम को ही उनसे मिलने सरकारी गेस्ट हाउस आना पड़ता और वहां भी कांशीराम उन्हें आधे घंटे तक इंतज़ार करवाते. जब वो अपने कमरे से बाहर निकलते तो बनियान और लुंगी पहने होते जब कि मुलायम मुख्यमंत्री के औपचारिक कपड़ों में होते. वो मुलायम सिंह की अवमानना करने का कोई मौक़ा नहीं चूकते.”
ये गठबंधन अधिक दिनों तक नहीं चला.
मायवती ने मुलायम सिंह यादव का साथ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली लेकिन इससे एक दिन पहले 2 जून, 1995 को मायावती को अपने जीवन के सबसे बड़े अपमान का घूंट पीना पड़ा.
शाम चार बजे स्टेट गेस्ट हाउस के उनके 'सुइट' पर क़रीब 200 मुलायम समर्थकों ने हमला बोल दिया. वो गेस्ट हाउस का मुख्य द्वार तोड़ कर अंदर घुस गए और उन्होंने मायावती को समर्थकों की जमकर पिटाई की.
मायावती के लिए गंदी गालियों और अपशब्दों का जमकर प्रयोग किया. मायावती अपने कमरे में रात एक बजे तक क़ैद रहीं. इस बीच लोगों ने उनके कमरे की बत्ती और पानी का कनेक्शन भी काट दिया. मायावती इस बेइज़्ज़ती को कभी नहीं भूलीं.
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नाम बदलने और मूर्तियां लगवाने का सिलसिला
मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने शहरों और ज़िलों के नाम बदलने की क़वायद शुरू की. आगरा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर उन्होंने भीमराव आंबेडकर और कानपुर विश्वविद्यालय का नाम बदल कर छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कर दिया.
मायावती की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना थी- लखनऊ में आंबेडकर पार्क और परिवर्तन चौक का निर्माण. इस पार्क में तमाम दलित महानायकों की मूर्तियां बनवाई गईं.
बीजेपी को जल्द ही लग गया कि मायावती उनका 'एजेंडा' नहीं चलाने वालीं. इसलिए कुछ महीनों के अंदर उन्होंने उनसे अपना समर्थन वापस ले लिया.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesजब राजा भैया को जेल भिजवाया
कुछ सालों बाद मायावती ने दोबारा भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया, लेकिन ये प्रयोग भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाया. उन्होंने इस बीच हालांकि एक कड़े प्रशासक की छवि हासिल कर ली थी.
उन्होंने प्रतापगढ़ के मशहूर नेता रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाकर उन्हें जेल के अंदर करवा दिया. राजा भैया उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले 20 वर्षों से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं और उनके ऊपर कई बड़े राजनेताओं जैसे मुलायम सिंह और राजनाथ सिंह का वरदहस्त रहा है.
मायावती की वजह से ही राजा भैया को पूरा एक साल जेल में बिताना पड़ा और उनकी रिहाई मुलायम सिंह यादव के सत्ता में दोबारा वापस आने के बाद ही हुई.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesकलेक्टर से कहा, 'तू तो गया'
मायावती के निकट रहे एक अफ़सर 2008 का एक क़िस्सा सुनाते हैं.
मायावती ने अचानक मथुरा में दो महीने पहले बन चुके एक नाले का हेलिकॉप्टर से उद्घाटन करने का फ़ैसला किया.
हालांकि मायावती का ये औचक दौरा था, लेकिन कलेक्टर को किसी तरह भनक मिल गई कि मायावती वहां पहुंचने वाली हैं. उन्होंने तुरंत नाले की दोबारा मरम्मत करा दी.
मायावती ने अचानक अपने पैर से नाले पर रखा 'कवर' हटाया और पाया कि उसकी हाल में ही मरम्मत की गई है. सारे गांव वाले ये नज़ारा देख रहे थे.
हेलिकॉप्टर पर चढ़ने से पहले मायावती उस कलेक्टर से बोलीं, 'तू तो गया.' उसी शाम उस कलेक्टर का तबादला कर दिया गया.
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इमेज कॉपीरइटBadri Narayanराजनीतिक पंडितों को ग़लत साबित किया
वर्ष 2007 में मायवती ने बिना किसी गठबंधन के अपनी पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत दिलवाया. उसी साल 'न्यूज़वीक' ने न सिर्फ़ उन्हें विश्व की चोटी की 100 महिला 'अचीवर्स' में जगह दी, बल्कि मुख्य पृष्ठ पर भी उनकी तस्वीर छापी.
उनके सबसे बड़े ख़ैरख़्वाह कांशीराम उनके जीवन की इस सबसे बड़ी उपलब्धि को देखने के लिए जीवित नहीं थे. लेकिन मायावती ने अधिकतर राजनीतिक पंडितों की उस भविष्यवाणी को ग़लत साबित किया कि कांशीराम की मृत्यु के बाद उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं रहेगा.
ज़मीन पर बहुजन समाज पार्टी की इस जीत का असर नाटकीय था. एक दलित बीएसपी कार्यकर्ता ने टिप्पणी की कि पहले लोग उसे 'रमुआ' कहा करते थे, लेकिन बहनजी की 2007 की जीत के बाद लोग उसे 'रामजी' कहने लगे.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesभ्रष्टाचार के आरोपों से घिरीं
अच्छा प्रशासन देने वाली मायावती ख़ुद को भ्रष्टाचार के आरोपों से नहीं बचा पाईं. ताज कॉरीडोर मामले से लेकर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के फ़ंड को दाएं-बाएं करने के मामले में उनकी काफ़ी किरकिरी हुई.
वर्ष 2012 में जब उन्होंने राज्यसभा के लिए अपना नामांकन पत्र दाखिल किया तो उन्होंने 112 करोड़ की कुल संपत्ति होने का हलफ़नामा दाख़िल किया.
उन्होंने दिल्ली के मशहूर सरदार पटेल मार्ग पर करोड़ों रुपये देकर 22 और 23 नंबर की कोठियों का सौदा किया. इसके अलावा अपने पुश्तैनी गांव बादलपुर में उन्होंने शाही शानशौकत वाली आलीशान कोठी बनवाई.
अपने 2012 वाले हलफ़नामे में ही उन्होंने स्वीकार किया कि उनके पास लगभग एक करोड़ मूल्य के आभूषण हैं.
मायावती के कई नज़दीकी रिश्तेदारों पर भी आय से कहीं अधिक संपत्ति रखने के आरोप लगे. मायावती ने इसकी सफ़ाई में कहा कि ये पैसा उन्हें लोगों से उपहार के तौर पर मिला है. उनके कई नज़दीकी सहयोगियों ने उन पर आरोप लगाया कि वो पैसा लेकर टिकट देती हैं.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी आदेश दिया कि पार्कों में मायावती ने सरकारी धन से अपनी और कांशीराम की जो मूर्तियां लगवाई हैं, उनका पैसा उनसे वसूला जाए.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesएक के बाद एक लगातार हार
मायावती सद्भावना को बहुत अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रख पाईं. 2012 के विधानसभा चुनाव में पहले समाजवादी पार्टी ने उन्हें हराया और फिर 2014 की मोदी लहर का इतना असर हुआ कि वो उत्तर प्रदेश से लोकसभा की एक भी सीट जीतने में नाकाम रहीं.
2017 के विधानसभा चुनाव में भी मायावती के 'कमबैक' की सारी उम्मीदें धूमिल साबित हुईं. उन्होंने अपने अब तक के सबसे धुर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी से चुनावी गठबंधन करके 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए इसका तोड़ निकाला.
कागज़ पर और चुनावी गणित के हिसाब से यह गठबंधन बहुत मज़बूत दिखाई देता है. अगर पुराने चुनावी आंकड़ों को देखा जाए तो उत्तर प्रदेश की क़रीब-क़रीब हर सीट पर बीजेपी को जीतने के लिए लोहे के चने चबाने होंगे. लेकिन बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन का पुराना इतिहास बहुत सुखद नहीं रहा है.
1996 में हुए चुनाव में उसने कांग्रेस के साथ भी चुनावी गठबंधन किया था. तब बहुजन समाज पार्टी ने 315 और कांग्रेस ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन जब नतीजे आए तो ये गठबंधन 100 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया.
तब कांशीराम ने एक पते की बात कही थी, “आज के बाद हम किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे. हमारे वोट तो दूसरी पार्टी को 'ट्रांसफ़र' हो जाते हैं, लेकिन दूसरी पार्टी के वोट हमें कभी 'ट्रांसफ़र' नहीं होते.”
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मायावती की पूरी कोशिश है कि वो अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के इस आकलन को ग़लत साबित करे.
इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी का इतिहास रहा है कि वो अच्छी प्रतिभाओं को अपने साथ रखने में विफल रही हैं. उनकी पार्टी में सबसे पहले जाने वालों में मसूद अहमद थे.
अजय बोस लिखते हैं, “मसूद मुलायम मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री थे. जून 1994 में उन्होंने मायावती पर तानाशाही का आरोप लगाकर शेख़ सुलेमान के साथ पार्टी छोड़ दी. बाद में कई बड़े मुस्लिम नेता अकबर अहमद डंपी, आरिफ़ मोहम्मद ख़ां और राशिद अल्वी उनकी पार्टी में आए, लेकिन कुछ समय बाद माययावती ने उन्हें बाहर का दरवाज़ा दिखाया.”
हाल में पार्टी छोड़ने वाले लोगों में स्वामी प्रसाद मौर्य और मायावती के ख़ासमख़ास रहे नसीमउद्दीन सिद्दीकी भी हैं.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesकभी प्रधानमंत्री बन पाएंगी मायावती?
मायावती की दिली इच्छा रही है कि एक दिन वो भारत की प्रधानमत्री बनें.
उनके गठबंधन सहयोगी अखिलेश यादव ने भी सार्वजविक रूप से कहा है कि वो मायावती की इस इच्छा में रोड़ा नहीं बनेंगे. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ 38 सीटों पर चुनाव लड़कर भारत का प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देख सकता है?
मायावती ने हमेशा मुसीबतों का बहुत जीवटता से सामना किया है और चुनौतियों के मुंह से सफलता को खींचा है. अपने पिता से विद्रोह कर वो अपने घर से बाहर निकल आईं.
उनकी पार्टी के लोग इंतज़ार करते रहे कि कब कांशीराम की मौत के बाद वो मुंह के बल गिरें, लेकिन उन्होंने उन्हें ही पार्टी के बाहर का रास्ता दिखाया. मुलायम सिंह यादव ने उन्हें डराने की कोशिश की, लेकिन उन्हें भी उन के आगे मुंह की खानी पड़ी. राजनीतिक पंडितों ने 2007 में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की, लेकिन वो भी ग़लत साबित हुए.
लगातार तीन चुनावों में हार के बाद मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को धक्का ज़रूर लगा है, लेकिन क्या इसका मतलब ये लगाया जाए कि मायावती का राजनीतिक करियर उतार पर है?
भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि किसी जीवित राजनेता चाहे वो कितने भी चुनाव हार चुका हो, उसकी राजनीतिक 'ऑबिटुएरी' लिखना बहुत ख़तरनाक है. कई लोग राजनीतिक पंडितों और लोगों द्वारा दरकिनार कर दिए जाने के बावजूद कल्पनातीत ऊंचाइयों को छू पाने में सफल रहे हैं.