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अब से कुछ हफ़्तों बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में लगभग 80 करोड़ मतदाता और लगभग 2000 चुनावी दल हिस्सा लेने जा रहे हैं.
लोकसभा चुनाव से जुड़ी यही बात इस चुनावी प्रक्रिया को चुनौतीपूर्ण बनाती है, और इस जटिल चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता इस आधार पर तय होती है कि चुनाव के लिए डाले गए मतों की गिनती करने की प्रक्रिया कितनी पुख़्ता है.
भारत के चुनावी इतिहास की बात करें तो ईवीएम मशीनों के प्रयोग से पहले देशभर में अलग-अलग स्तरों पर होने वाले चुनाव मतदान केंद्रों पर हमले, मतपेटियों में मत भरने जैसी घटनाओं से प्रभावित रहे हैं, और ये हमले राजनीतिक पार्टियों के लिए काम करने वाले असामाजिक तत्व किया करते थे.
लेकिन नई सदी के आगमन के साथ ही चुनावों में ईवीएम मशीनों का प्रयोग शुरू होने के बाद ऐसी घटनाएं बीते दिनों की बातें हो गई हैं.
हालांकि, समय-समय पर इन मशीनों की प्रामाणिकता पर सवाल उठते रहे हैं. अक्सर, चुनाव हारने वाली पार्टियां सवाल उठाती हैं कि इन मशीनों को हैक किया जा सकता है.
साल 2019 के आम चुनावों में अब सिर्फ़ कुछ हफ़्ते बचे हैं और इन मशीनों पर एक बार फिर सवाल उठने शुरू हो गए हैं.
अमरीकी हैकर का दावा
बीते हफ़्ते, अमरीका स्थित एक हैकर ने दावा किया कि साल 2014 के चुनाव में मशीनों को हैक किया गया था. इस चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज की थी.
हालांकि, भारतीय चुनाव आयोग ने इन दावों का खंडन किया है. लेकिन इन मशीनों में तकनीक के इस्तेमाल को लेकर आशंकाएं ज़ाहिर की गई हैं.
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भारत की अलग-अलग अदालतों में इस मुद्दे पर कम से कम सात मामले चल रहे हैं. लेकिन चुनाव आयोग हर मौके़ पर इन मशीनों को हैकिंग प्रूफ़ बताता आया है.
भारत के चुनाव में 16 लाख ईवीएम मशीनें इस्तेमाल की जाती हैं और ऐसी हर एक मशीन में अधिकतम 2000 मत डाले जाते हैं.
किसी भी मतदान केंद्र पर पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 1500 और उम्मीदवारों की संख्या भी 64 से ज़्यादा नहीं होती है. भारत में बनीं ये मशीनें बैटरी से चलती हैं.
ये मशीनें उन इलाक़ों में भी चल सकती हैं जहां बिजली उपलब्ध नहीं होती है. इन मशीनों के सॉफ़्टवेयर को एक सरकारी कंपनी से जुड़े डिज़ायनरों ने बनाया था.
चुनाव आयोग के मुताबिक़, ये मशीनें और इनमें दर्ज रिकॉर्ड्स को किसी भी बाहरी समूह के साथ साझा नहीं किया जाता है.
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कैसे काम करती हैं ये मशीनें
मतदाताओं को वोट करने के लिए एक बटन दबाना होता है. मतदान अधिकारी भी एक बटन दबाकर मशीन बंद कर सकता है ताकि मतदान केंद्र पर हमला होने की स्थिति में जबरन डाले जाने वाले फर्ज़ी मतों को रोका जा सके.
मतदान से जुड़े रिकॉर्ड्स रखने वाली मशीन पर मोम की परत चढ़ी होती है. इसके साथ ही इसमें चुनाव आयोग की तरफ़ से आने वाली एक चिप और सीरियल नंबर होता है.
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इस मशीन को अब तक 113 विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल किया जा चुका है. इन मशीनों के प्रयोग से मतगणना का काम बहुत तेज़ी से होता है.
एक लोकसभा सीट के लिए डाले गए मतों को महज़ तीन से पांच घंटों में गिना जा सकता है जबकि बैलट पेपर के दौर में इसी काम को करने में 40 घंटों का समय लगता था.
इसके साथ ही मशीन फर्ज़ी मतों को अलग कर देती है जिससे ऐसे वोटों को गिनने में लगने वाले समय और ख़र्च में ख़ासी कमी आई है.
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इस विषय पर हुए शोध में सामने आया है कि वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से चुनावी घोटालों और मानवीय ग़लतियों में कमी आई है जिससे लोकतंत्र को फ़ायदा हुआ है.
शोधार्थियों सिसिर देबनाथ, मुदित कपूर और शामिका रवि ने साल 2017 में विधानसभा चुनावों से जुड़े आंकड़ों पर शोध करके वोटिंग मशीनों के असर पर एक शोध पत्र पेश किया था.
इन शोधार्थियों ने अपने शोध के दौरान पाया कि वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से चुनावी गड़बड़ी में कमी आई है जिससे ग़रीबों को खुलकर मतदान करने में मदद मिली है और चुनाव ज़्यादा प्रतिस्पर्धी हुए हैं.
इन शोधार्थियों को ये भी पता चला कि ई-वोटिंग के चलते निवर्तमान चुनावी दलों के वोट शेयर में भी कमी आई है.
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क्या हैकिंग संभव है?
चुनाव आयोग इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के पूरी तरह सुरक्षित होने का दावा करता आया है. लेकिन समय-समय पर इन मशीनों के हैक होने की आशंकाएं सामने आती रही हैं.
आठ साल पहले, अमरीका की मिशिगन यूनिवर्सिटी से जुड़े वैज्ञानिकों ने एक डिवाइस को मशीन से जोड़कर दिखाया था कि मोबाइल से संदेश भेजकर मशीन के नतीजों को बदला जा सकता है.
हालांकि, भारत की आधिकारिक संस्थाओं ने इस दावे को ख़ारिज करते हुए कहा था कि मशीन से छेड़छाड़ करना तो दूर, ऐसा करने के लिए मशीन हासिल करना ही मुश्किल है.
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वहीं, मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से जुड़े विशेषज्ञ धीरज सिन्हा मानते हैं कि लाखों वोटिंग मशीनों को हैक करने के लिए काफ़ी ज़्यादा धन की ज़रूरत होगी और ऐसा करने के लिए इस काम में मशीन निर्माता और चुनाव कराने वाली संस्था का शामिल होना ज़रूरी है, इसके लिए एक बहुत ही छोटे रिसिवर सर्किट और एक एंटीना को मशीन के साथ जोड़ने की ज़रूरत होगी जोकि 'इंसानी आंख से दिखाई नहीं देगा.'
वह कहते हैं कि वायरलैस हैकिंग करने के लिए मशीन में एक रेडियो रिसीवर होना चाहिए जिसमें एक इलेक्ट्रॉनिक सर्किट और एंटीना होता है.
चुनाव आयोग का दावा है कि भारतीय वोटिंग मशीनों में ऐसा कोई सर्किट ऐलीमेंट नहीं हैं. कम शब्दों में कहे तो इतने व्यापक स्तर पर हैकिंग करना लगभग नामुमिकन होगा.
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दुनिया की वोटिंग मशीनों का हाल
दुनिया में लगभग 33 देश किसी न किसी तरह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग की प्रक्रिया को अपनाते हैं और उन मशीनों की प्रामाणिकता पर सवाल उठे हैं.
वेनेज़ुएला में साल 2017 के चुनावों में डाले गए मतों की कुल संख्या कथित रूप से असली संख्या से दस लाख ज़्यादा निकली. हालांकि, सरकार इसका खंडन करती है.
अर्जेंटीना के राजनेताओं ने इसी साल मतों की गोपनीयता और नतीजों में छेड़छाड़ की आशंकाएं जताते हुए ई-वोटिंग कराने की योजना से किनारा कर लिया है.
इराक़ में साल 2018 में हुए चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की ख़बरों के बाद मतों की आंशिक गिनती दोबारा करवाई गई थी.
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बीते साल दिसंबर महीने में डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो में ई-वोटिंग से पहले मशीनों की टेस्टिंग न किए जाने की ख़बरें सामने आने के बाद ई-वोटिंग मशीनें विवाद का विषय बनी थीं.
अमरीका में वोटिंग मशीनों को लगभग 15 सालों पहले इस्तेमाल में लाया गया था.
इस समय अमरीका में लगभग 35000 मशीनें इस्तेमाल होती हैं. इस तरह मतदान में काग़ज़ी सबूत न होने से मशीन के स्तर पर ग़लत मतदान रिकॉर्ड होने पर उसके सुधार की गुंजाइश कम होने से जुड़ी चिंताएं जताई गई थीं.
इन चुनावों में मतों की गिनती करने वाली मशीनों में एक प्रोग्राम पाया गया जोकि दूर बैठे सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर को मशीन में फ़ेरबदल करने की सुविधा देता था.
साउथ कैरोलिना यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस विभाग के प्रोफ़ेसर डंकन बुएल इसी विषय पर शोध कर रहे हैं.
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तकनीक और लोकतंत्र
डंकन बुएल ने बीबीसी के साथ बातचीत में कहा, "मेरा मानना है कि हमें चुनावी प्रक्रिया में तकनीक का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए. सॉफ़्टवेयर ठीक ढंग से काम करें, ये मुश्किल होता है और वो भी तब जब मतों और मतदाताओं के बीच संबंध स्थापित न किया जाना हो. ऐेसे में इसकी पुष्टि करने का कोई सही तरीक़ा नहीं है कि ये चीज़ें अपेक्षानुसार काम करें."
इस सबके बावजूद भारत में चुनावों को पारदर्शी और भरोसेमंद बनाने के लिए शायद सही दिशा में काम हो रहा है.
पांच साल पहले, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सभी वोटिंग मशीनों में वीवीपैट मशीनें (मतदान से जुड़ी रसीदें छापने वाली मशीन) भी लगी होनी चाहिए.
इन मशीनों के लगे होने पर जब एक मतदाता अपना मत डालता है तो मत दर्ज होते ही प्रिंटिंग मशीन से एक रसीद निकलती है जिसमें एक सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिह्न दर्ज होता है. ये सूचना एक पारदर्शी स्क्रीन पर सात सेकेंड के लिए उपलब्ध रहती है.
हालांकि, सात सेकेंड के बाद ये रसीद निकलकर एक सीलबंद डिब्बे में गिर जाती है.
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चुनाव आयोग ने ये फ़ैसला किया है कि विधानसभा चुनावों में मशीन से हासिल हुए नतीजों का कुल मतदान केंद्रों में से पांच फ़ीसदी केंद्रों की मतदान रसीदों के आधार पर निकाले गए नतीजों से मिलान किया जाएगा.
क्योंकि, मतदान रसीदों की मदद से चुनावी नतीजों का आकलन आर्थिक और समय के लिहाज़ से बेहद ख़र्चीला होगा.
शोधार्थियों ने इस मुद्दे पर जोखिम को कम करने वाले ऑडिट करने की पेशकश की है जिससे भारतीय चुनावों के नतीजों को विश्वसनीयता हासिल हो सके.
फ़िलहाल, चुनाव आयोग के पूर्व प्रमुख एस.वाई. क़ुरैशी मानते हैं कि मतदान रसीदों की वजह से मतदाताओं और चुनावी दलों की आशंकाएं ख़त्म होनी चाहिए.
साल 2015 से सभी विधानसभा चुनावों में वीवीपैट मशीनों का प्रयोग हो रहा है. इन चुनावों में पंद्रह सौ मशीनों से निकली रसीदों के चुनावी नतीजों का मशीनों से निकले चुनावी नतीजों से मिलान किया गया था.
एस.वाई. क़ुरैशी बताते हैं कि "इन चुनावों में एक भी मौक़ा ऐसा नहीं आया है जब नतीजों में अंतर पाया गया हो."
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