एब्स्ट्रैक्ट:चार ख़ाली बर्तन, उल्टी पड़ी कड़ाही, बुझा हुआ मिट्टी का चूल्हा और तीन भूखे बच्चे. जमना की रसोई में बस
चार ख़ाली बर्तन, उल्टी पड़ी कड़ाही, बुझा हुआ मिट्टी का चूल्हा और तीन भूखे बच्चे. जमना की रसोई में बस यही था.
घर में दो दिनों से कुछ नहीं बना था. दो दिन पहले भी महज़ एक वक्त सिर्फ़ रोटियां ही खाईं थीं.
बार-बार खाना मांगते बच्चों को डपटकर भगाने के बाद जमना कहती हैं, बच्चे कभी रोटी मांगते हैं, कभी पूरी मांगते हैं, कभी कहते हैं पराठे बना दे. तेल होए, सामान होए तो कुछ बनाऊं. कुछ है ही नहीं."
जमना के घर के ऐसे हालात तब हैं, जबकि उनके पास अंत्योदय राशन कार्ड है, जो ग़रीबी रेखा के नीचे के लोगों को जारी किया जाता है. इस राशन कार्ड से जमना को एक रुपए किलो के हिसाब से गेहूं और चावल मिल सकता है. साथ ही वो मिट्टी का तेल और दूसरे सामान भी राशन की दुकान से ख़रीद सकती हैं.
लेकिन वो ये सामान नहीं ले पा रहीं, क्योंकि उन्होंने अपना राशन कार्ड डेढ़ साल पहले गांव के ही एक शख्स के पास गिरवी रख दिया था. इसी शख्स के पास गांव के और भी कई परिवारों के अंत्योदय राशन कार्ड गिरवी पड़े हैं.
ये कहानी सिर्फ़ जमना या मझेरा गांव की नहीं है, बल्कि मध्य प्रदेश के शिवपुरी के 300 से ज़्यादा सहरिया आदिवासी बहुल गांवों में राशन कार्ड गिरवी रखने की एक व्यवस्था सी बन चुकी है.
'कुछ और गिरवी रखने के लिए है ही नहीं'
किसी ग़रीब परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी मुहैया कराने वाले राशन कार्ड से ज़रूरी और क़ीमती चीज़ क्या हो सकती है. लेकिन, फिर भी आख़िर क्या वजह है कि यहां के लोग अपना राशन कार्ड गिरवी रख देते हैं?
मोहन कुमार कहती हैं, मौड़ा (बच्ची) बहुत बीमार थी. उल्टी-दस्त लगे थे. इलाज के लिए पैसों की ज़रूरत थी. पैसा-धेला है नहीं, कहां से इलाज करा लेते. मजबूरी में राशन कार्ड गिरवी रखा. और कोई चारा ही नहीं था."
ठीक इसी वजह से जमना ने भी अपने डेढ़ साल के बच्चे के लिए कर्ज़ लिया था. उनके बच्चे को सूखा रोग हुआ था. लेकिन, इलाज के बाद ना तो जमना की बच्ची बच सकी और ना ही मोहन कुमार की और ना ही वो अब तक अपना राशन कार्ड छुड़ाने के लिए पैसे का इंतज़ाम कर पाईं.
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Image caption रामश्री
रामश्री का बेटा भी बीमारी के बाद चल बसा. वो कहती हैं, “जिसके लिए कर्ज़ लिया वो ही मौड़ा ना बचा. बच्चा तो बचा नहीं राशन कार्ड भी चला गया.” इतना कहते ही रामश्री फफक कर रो पड़ीं.
इस मां के आसूं अपने एक बच्चे को खोने और दूसरे को रोज़ भूखा देखने की लाचारी दिखाते हैं.
राशन कार्ड गिरवी रखने वाले ज़्यादातर लोगों ने किसी अपने के इलाज के लिए ही राशन कार्ड गिरवी रखकर कर्ज़ लिया था.
मझेरा गांव में बनी डिस्पेंसरी बंद पड़ी है. लोगों का कहना है कि इलाज के लिए गांव से दूर ज़िला अस्पताल जाना पड़ता है, जिसमें उनका काफ़ी ख़र्चा हो जाता है. कई बार मरीजों को वहां से ग्वालियर रेफ़र कर दिया जाता है.
अंतिम पंक्ति के व्यक्ति के लिए अंत्योदयराशन कार्ड
2011 की जनगणना के मुताबिक़ शिवपुरी में एक लाख 80 हज़ार 200 सहरिया आदिवासी हैं. इनके लिए 52625 परिवारों को अंत्योदय राशन कार्ड दिए गए.
शिवपुरी के खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के मुताबिक़ इन अंत्योदय राशन कार्ड धारियों के लिए हर महीने एक लाख 80 हज़ार 395 क्विंटल गेंहू और तीन लाख 19 हज़ार 418 क्विंटल चावल शासकीय उचित मूल्य दुकानों (राशन की दुकानों) में पहुंचता है.
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सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इनमें से क़रीब 70 फ़ीसदी राशन कार्ड गिरवी रखे हुए हैं. वो इसे इलाक़े में चल रहा बड़ा स्कैम बताते हैं.
इन आदिवासियों के लिए काम करने वाले संजय बेचैन कहते हैं, देश में सबसे ज़्यादा सहरिया आदिवासी इसी इलाक़े में रहते हैं. अत्यंत भयानक ग़रीबी के कारण इन आदिवासियों के इर्द-गिर्द हर गांव में एक रैकेट सक्रिय है. वो रैकेट उन्हें दीमक की तरह खाए जा रहा है. ये दबंगों, बाहुबलियों और साहूकारों का रैकेट है. आदिवासियों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर ये लोग उनका राशन कार्ड हड़प लेते हैं."
BBC
यहां के 90 फीसदी आदीवासी अशिक्षित हैं. जैसे अमीर महिला बुरे वक्त में अपने आभूषण गिरवी रखती है, ठीक वैसे ही यहां कि मांएं अपने बच्चों के लिए राशन कार्ड गिरवी रखती हैं.
संजय बेचैन
सामाजिक कार्यकर्ता
इन आदिवासियों के पास रोज़गार का कोई पक्का साधन नहीं है. महिलाएँ जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर बेचती हैं और पुरुष खदानों में काम करते हैं. इन कामों में इन्हें दिन के 100-200 रुपए मिल जाते हैं, लेकिन ये काम भी हफ़्ते में दो तीन दिन ही मिल पाता है.
जितने पैसे ये कमा पाते हैं, उसमें बाज़ार भाव का आटा-दाल लेना इनके लिए मुश्किल होता है और फिर दूसरी ज़रूरतों के लिए तो पैसा बचता ही नहीं है.
मोहम्मदपुर गांव की रहने वाली स्वरूपी ने भी अपने बच्चे के इलाज के लिए एक साल पहले राशन कार्ड गिरवी रखा था. वो कहती हैं, डेढ़ सौ रुपए का पांच किलो आटा आता है. बच्चों को कैसे पालें. कई बार सुबह बनाने को होता है तो शाम को नहीं. कई बार तो बच्चे रोते-रोते ख़ाली पेट ही सो जाते हैं."
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Image caption नेहा बंसल
खाद्य विभाग शिकायत के इंतज़ारमें
सामाजिक कार्यकर्ता संजय बेचैन कहते हैं, बीमारी और कुपोषण से जूझते हुए आदिवासियों के पास अपने राशन कार्ड तक सुरक्षित नहीं हैं, इससे ज़्यादा भयावह स्थिति क्या होगी. सरकार की योजनाएं आदिवासियों के नाम से आती तो हैं लेकिन उन तक पहुंच नहीं पातीं."
जब हम शिवपुरी के खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के दफ्तर पहुंचे तो वहां सभी अधिकारियों ने इस मामले की जानकारी होने की बात मानी. लेकिन, उन्होंने कहा कि अभी विभाग शिकायत का इंतजार कर रहा है.
विभाग की कनिष्ठ आपूर्ति अधिकारी नेहा बंसल ने बीबीसी से कहा, हमारे पास अब तक कोई शिकायत नहीं आई है. शिकायत आने पर उचित क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी."
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Image caption असलम
लेकिन मझेरा गांव में हमारी मुल़ाकात राशन कार्ड गिरवी रखने वाले शख्स से हुई. जिसने खुले तौर पर कैमरे पर ये बताया कि उसके पास कई परिवारों के राशन कार्ड कई महीनों-सालों से गिरवी हैं और वो उनका राशन ख़ुद ले रहा है. ऊपर से ली गई रकम पर ब्याज़ भी चढ़ाता जा रहा है.
जमना को राशन कार्ड के बदले तीन हज़ार रुपए मिले थे, डेढ साल में ब्याज़ लगाकर असलम अब पांच हज़ार रुपए मांग रहा है.
असलम की गांव में ही परचून की दुकान है. उसने बीबीसी से कहा, मेरे पास कई लोगों के राशन कार्ड गिरवी रखे हैं. लोगों ने ज़रूरत पड़ने पर राशन कार्ड गिरवी रखकर पैसा लिया. जब वो पैसा दे जाएंगे तो राशन कार्ड ले जाएंगे."
असलम जैसे लोग यहां के लगभग हर गांव में हैं, जो राशन कार्ड गिरवी रखकर इन लोगों को कर्ज़ देते हैं.
लेकिन, सवाल ये भी उठता है कि किसी व्यक्ति के राशन कार्ड पर किसी दूसरे व्यक्ति को राशन कैसे दे दिया जाता है?
जब हमने कनिष्ठ आपूर्ति अधिकारी नेहा बंसल से पूछा कि क्या राशन कार्ड धारी की पहचान के बिना राशन दिया जा सकता है तो उन्होंने बताया, “हाल ही में देश में भूख से हुई मौतों के बाद हमें ये निर्देश दिए गए थे कि आधार ना होने या बॉयोमिट्रिक ना लगने पर भी राशन नहीं रोका जा सकता”.
इसी नियम का फ़ायदा उठाकर राशन कार्ड गिरवी रखने वाले असली हकदार का राशन ख़ुद हड़प लेते हैं.
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इमेज कॉपीरइटSanjay baichain जब कुपोषण से हुई थी मौतें
पिछले कई सालों में शिवपुरी और पास के श्योपुर ज़िले में कई बच्चों की मौत कुपोषण की वजह से हुई थी. सरकार ने माना था कि इन इलाक़ों में कई हज़ार बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
जब इलाके में बच्चों की मौत की सुर्ख़ियां अखबार और टीवी पर छाईं तो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि हर आदिवासी परिवार के पोषित आहार के लिए हर महीने 1000 रुपए सीधे बैंक खाते में डाले जाएंगे.
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए लोगों के खातों में पैसे डाले भी जा रहे हैं. लेकिन लोगों तक बैंक की पहुंच बनाने के लिए गांवों में लगाए गए प्राइवेट कियोस्क सेंटर से लोगों को चार-चार महीने में सिर्फ एक-दो बार ही पैसे मिल पाते हैं.
देश में खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू है. लेकिन, शिवपुरी के इन गांवों की तस्वीर सरकार के आंकड़ों और दावों के बीच का खोखलापन दिखाती हैं.
शिवपुरी की तस्वीर सिर्फ़ लोगों के भोजन, राशन की समस्या को उजागर नहीं करती, बल्कि भ्रष्टाचार, रोज़गार की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं को भी कठघरे में खड़ा करती है.
शिवपुरी के सहरिया आदिवासियों की हालत पर अदम गोंडवी की ये पंक्तियां मौजूं हो जाती हैं,
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है,
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है.