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लोकसभा चुनाव 2019: बिहार में राजद की दुर्दशा के लिए तेजस्वी यादव कितने ज़िम्मेदार? :नज़रिया

WikiFX
| 2019-05-25 09:49

एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Images23 मई की शाम बिहार की राजनीति के दिग्गज नेता और राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीम

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23 मई की शाम बिहार की राजनीति के दिग्गज नेता और राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती पाटलीपुत्र लोकसभा सीट से चुनाव हार गईं.

शुरुआती रुझानों में मीसा भारती आगे चल रही थीं. उम्मीद लगाई जा रही थी कि इस जीत के साथ आरजेडी अपना खाता खोलने में सफल हो जाएगी.

लेकिन आख़िरकार बीजेपी उम्मीदवार और केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव ने मीसा भारती को 37 हज़ार वोटों के अंतर से हरा दिया.

इस तरह आरजेडी शून्य पर सिमट गई. आरजेडी के इस प्रदर्शन पर सोशल मीडिया पर जारी चर्चाओं में तेजस्वी यादव को इस ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है.

अगर ज़िम्मेदार ठहराने की बात की जाए तो इस समय महागठबंधन में हर नेता अपने आपको बचाने की कोशिश में दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं.

इमेज कॉपीरइटAFPआख़िर कौन ज़िम्मेदार?

बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नाम की सुनामी में कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों के अलावा पूरे भारत में अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया है.

ऐसे में सवाल उठता है कि किसी एक नेता को इस हार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना कितना सही है?

लेकिन ये भी सही है कि किसी न किसी को इस हार की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए और लालू परिवार इस ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता.

लेकिन सच ये भी है कि बिहार में महागठबंधन शुरुआत से ही प्रतिकूल स्थिति में था जबकि पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में स्थिति ऐसी नहीं थी.

राजनीतिक पंडित ये मानकर चल रहे थे कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन बीजेपी को कड़ी टक्कर देगा.

बिहार की बात करें तो एनडीए के घटक दलों के बीच दिसंबर में ही सीटों के बंटवारे को लेकर स्थिति स्पष्ट हो गई थी. ज़्यादातर सर्वेक्षणों में एनडीए को 32 से 36 सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही थी.

इसकी वजह भी साफ़ थी. साल 1999 के बाद से ये पहला मौक़ा था जब नीतीश कुमार और रामविलास पासवान एक साथ चुनाव लड़ने जा रहे थे.

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ख़ुद को दोहराता इतिहास?

करगिल युद्ध के बाद हुए चुनाव में एनडीए ने अविभाजित बिहार की 54 में से 41 सीटों पर जीत दर्ज की थी. तब भी आरजेडी ने कांग्रेस और सीपीएम के साथ चुनाव लड़ा था.

इस चुनाव में शरद यादव ने मधेपुरा सीट से लालू प्रसाद यादव को हरा दिया था.

इमेज कॉपीरइटGetty Images

उस दौरान भी हार का अंतर मात्र 32 हज़ार वोट थे. ये तीन पार्टियां सिर्फ़ सात सीटें जीत सकी थीं.

वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा ने छह सीटों पर जीत दर्ज की थी. एक निर्दलीय उम्मीदवार ने भी एक सीट जीतने में सफ़लता हासिल की थी.

ऐसे में अंकगणित के लिहाज़ से एनडीए बिहार में अनूकूल स्थिति में था लेकिन मोदी की लहर के चलते एनडीए की ताक़त कई गुना बढ़ गई.

ऐसे में महागठबंधन के सामने किसी भी तरह का राजनीतिक दांवपेच करने की कोई संभावना नहीं थी.

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लालू की मजबूरी

लालू प्रसाद यादव ने अविश्वसनीय राजनीतिक सहयोगी माने जाने वाले उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी से संपर्क किया.

लालू ऐसा करने के लिए मजबूर थे. हालांकि लालू और तेजस्वी अच्छी तरह जानते थे कि ये तीनों नेता पूरे कुशवाहा, दलित, सहनी और निषाद समाज का समर्थन हासिल नहीं कर सकते.

इमेज कॉपीरइटGetty Images

लेकिन उन्होंने सोचा कि अगर ये ऐसा करने में सफल हो गए तो इससे महागठबंधन का फ़ायदा ही होगा.

उपेंद्र कुशवाहा, मांझी और सहनी समेत वाम दलों ने अपनी बढ़ती मांग देखकर अपनी राजनीतिक बिसात से ज़्यादा हिस्सेदारी मांगना शुरू कर दी.

ये सभी दल आधा दर्जन से ज़्यादा सीटें चाहते थे. इसके बाद कांग्रेस की बिहार शाखा ने भी अपनी मांगे बढ़ा दीं.

इस राजनीतिक रस्साकशी के चलते महागठबंधन में सीटों को लेकर होने वाला बंटवारा 22 मार्च तक टलता रहा. तब तक एनडीए के कई उम्मीदवारों ने अपना प्रचार करना भी शुरू कर दिया था.

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कन्हैया की कहानी

इसके बाद बेगूसराय सीट को लेकर आरजेडी और सीपीआई के बीच एक नया विवाद पैदा हो गया. सीपीआई इस सीट से कन्हैया कुमार को उतारना चाहती थी.

इमेज कॉपीरइटTwitter/SwaraBhaskar

हालांकि सीपीआई ने बीते 52 सालों से बेगूसराय में एक भी लोकसभा चुनाव नहीं जीता है.

इससे पहले सीपीआई ने 1996 में एक सीट जीतने में कामयाबी हासिल की थी लेकिन ये लालू यादव की पार्टी के साथ गठबंधन के बाद संभव हुआ था. ग़ैर-एनडीए दलों में आपसी कलह से नेताओं में एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव पैदा हुआ.

ऐसा भी लगता है कि कोई भी मोदी की लहर को चुनौती देने के लिए तैयार ही नहीं था.

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पप्पू यादव का असर

इसके बाद पप्पू यादव ने भी शरद यादव की जीत की संभावनाओं को नुक़सान पहुंचाने के लिए मधेपुरा से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी.

इसके चलते कई राजद समर्थकों ने उनकी पत्नी और मौजूदा कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन को वोट नहीं दिया. महागठबंधन को इन दोनों सीटों पर जीत मिल सकती थी लेकिन ये हो नहीं पाया.

इमेज कॉपीरइटAFP/FACEBBOK

मधुबनी में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने डॉ. शकील अहमद ने पार्टी छोड़कर अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करके डेढ़ लाख मत हासिल करके इस सीट पर महागठबंधन के उम्मीदवार की हार तय कर दी.

दरभंगा में आरजेडी नेता और पूर्व सांसद एमएए फ़ातमी और उनके समर्थकों ने अपनी ही पार्टी के अब्दुल बारी सिद्दिक़ी को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

महागठबंधन के शीर्ष नेताओं में जब ये रस्साकशी चल रही थी तब राजद सुप्रीमो लालू यादव जेल में बंद थे और स्थिति को संभालने के लिए कुछ नहीं कर सके.

लालू के परिवार में भी स्थिति ठीक नहीं थी. उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव अपने ससुर और सारण से उम्मीदवार चंद्रिका राय को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

इसके साथ ही तेज प्रताप यादव ने जहानाबाद में अपनी पार्टी से अलग एक उम्मीदवार का समर्थन किया. इसके चलते इस सीट पर राजद उम्मीदवार सुरेंद्र यादव हार गए.

विशेषज्ञों की मानें तो इन विपरीत परिस्थितियों में भी अगर महागठबंधन एक साथ मिलकर कुछ समय पहले अपना चुनावी अभियान शुरू करता तो परिणाम वर्तमान चुनावी नतीज़ों से हो सकते थे.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)

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