एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटAFPक्या आपको आज भी ख़ून से सने उन दो क़दमों की कहानी याद है जिन पर चलकर 65 साल की शेखुबा
इमेज कॉपीरइटAFP
क्या आपको आज भी ख़ून से सने उन दो क़दमों की कहानी याद है जिन पर चलकर 65 साल की शेखुबाई वागले अपनी मांग लेकर मुंबई तक पैदल चलकर आई थीं.
किसान मार्च में शेखुबाई के साथ हज़ारों किसान पैदल चल रहे थे. इन किसानों की मांग बस ये थी कि उन्हें उस ज़मीन का मालिकाना हक़ दिया जाए जिस पर वो एक लंबे समय से फ़सल उगा रहे हैं.
इस मार्च में किसानों के लहूलुहान होते क़दमों की तस्वीरों ने सोशल मीडिया से लेकर राष्ट्रीय राजनीति को हिलाकर रख दिया था.
किसानों के इस संघर्ष के एक साल बाद बीती सात जून को शेखुबाई को उनकी ज़मीन पर हक़ मिल गया है.
बीते शुक्रवार स्थानीय लेखपाल ने उन्हें उनकी ज़मीन के काग़ज़ दिए गए.
हाथों में ज़मीन के काग़ज़ आते ही शेखुबाई ने उस ज़मीन पर सिर रख दिया जिसके लिए उन्होंने ये संघर्ष किया था.
बीबीसी मराठी ने बीती अप्रैल में शेखुबाई वागले की ख़बर को प्रकाशित किया था.
उस दौरान लोकसभा चुनाव होने वाले थे. तब तक उनके क़दमों के जख़्म ठीक नहीं हुए थे और उन्हें उनकी ज़मीन पर हक़ भी नहीं मिला था.
क्यों करना पड़ा लंबा इंतज़ार?
बीते साल कई अख़बारों ने शेखुबाई के लहूलुहान पैरों की तस्वीर को प्रमुखता से छापा था.
अंग्रेजी अख़बार टेलीग्राफ़ ने इस तस्वीर के साथ लिखा - 'वो जख़्म जो कॉफ़ी पीते हुए भारत का दम घोंट दे'
इमेज कॉपीरइटTHE TELEGRAGH
प्रदेश सरकार ने भी इस मार्च के बाद हरकत में आते हुए प्रदर्शनकारियों को उनकी ज़मीनें दिए जाने का आश्वासन दिया.
इसके एक साल बाद लोकसभा चुनाव के दौरान जब शेखुबाई से हमारी मुलाक़ात हुई तो हमें पता चला कि अप्रैल महीने तक उन्हें उनकी ज़मीन नहीं मिली थी.
लेकिन इस कोशिश में जख़्मी हुए अपने पैरों का इलाज कराने के लिए उन्हें अपने नथुने को गिरवी रखना पड़ा.
अब मार्च नहीं करेंगे किसान, सरकार से हुआ समझौता
ख़ुद ख़रीदा अपनी अर्थी का सामान और कर ली आत्महत्या
क्यों हुई देरी?
बीबीसी मराठी ने इस मसले पर दिंदोरी तहसील और ज़िलाधिकारी कार्यालय में वनभूमि के एक हिस्से पर शेखुबाई के दावे को लेकर बातचीत की.
इस बारे में शेखुबाई को ज़मीन दिए जाने का आश्वासन देने वाले राजस्व मंत्री चंद्रकांत पाटिल से भी बात की गई.
इमेज कॉपीरइटGetty Images
हमें बताया गया कि उनके दावे को स्वीकार नहीं किया गया है.
नासिक के ज़िलाधिकारी सूरज मांढरे ने ज़िलास्तरीय वनाधिकार समितियों से संपर्क किया जिसके बाद शेखुबाई से जुड़ी जानकारी को निकाला गया.
बीबीसी मराठी सेवा ने ज़िलास्तरीय वनाधिकार समितियों से शेखुबाई की फाइल को लेकर जानकारी लेने का प्रयास किया ताकि ये समझा जा सके कि उनकी फाइल कहां अटकी हुई है.
समिति के संयोजक शांताराम दाभाड़े ने बीबीसी को बताया, जंगल की ज़मीन से जुड़े सभी दावों की तलाश करने के बाद भी हमें शेखुबाई की फाइल नहीं मिली. इसके बाद हमने शेखुबाई से बात की और उनके काग़ज़ातों को देखा तो पता चला कि राशन कार्ड पर उनका नाम छबुबाई वागले था.''
दाभाड़े बताते हैं, “शेखुबाई को दिंदोरी में सरकारी कार्यालय में बुलाया गया था. वहां सब डिविज़नल ऑफ़िसर ने उनके दावों की पुष्टि की. इसके बाद ज़िलास्तरीय समिति ने तत्काल आगे की प्रक्रिया शुरू कर दी और बीते सोमवार को उनकी ज़मीन का हिस्सा उनके नाम हस्तांतरित कर दिया गया.”
दिल्ली में किसानों की पलटनिया, हिले ले झकझोर दुनिया
मोदी की सांसद निधि पर रोक क्यों लगी-बीबीसी पड़ताल
ख़बर का असर
इस दौरान अधिकारियों ने ये बात मानी कि अप्रैल 2019 में बीबीसी मराठी सेवा की ओर से ख़बर किए जाने से इस मामले में तेज़ी आई थी.
दिंदौरी के सब डिविज़नल अधिकारी संदीप आहेर कहते हैं, “बीते अप्रैल महीने में जब उनकी ख़बर मैंने बीबीसी मराठी सेवा में देखी तो मैंने ये पता लगवाया कि कहीं ये मामला हमारे स्तर से रुका हुआ तो नहीं है. इसके बाद मुझे पता चला कि मुझसे पहले इस पद पर आसीन अधिकारी साल 2018 के नवंबर-दिसंबर महीने में ही ज़िला स्तरीय वनाधिकार समितियों तक इस मामले को पहुंचा चुके हैं. लैंड-डीड सर्टिफिकेट बनने के बाद, ये ज़मीन सात-बारा (खसरा-खतौनी) प्रमाणपत्र में भी दर्ज की जाएगी.”
इसके बाद बीबीसी मराठी ने इस बारे में ज़िलाधिकारी को सूचना दी. फिर ज़िलाधिकारी कार्यालय ने तत्काल प्रभाव से शेखुबाई के दावे को स्वीकार कर लिया.
फिर लेखपाल शेखुबाई के गांव पहुंचे जहां पर वह अपने भाई के साथ रहती हैं.
लेखपाल ने शेखुबाई को ज़मीन के काग़ज़ात देकर प्रमाणपत्र पर उनके अंगूठे के निशान लिए.
इस तरह शेखुबाई उस ज़मीन के हिस्से की मालकिन बन गईं जिसे वह बीते पचास सालों से खेती के लिए तैयार कर रही हैं.
पहाड़ की तलहटी में स्थित ये पथरीली ज़मीन को लेकर शेखुबाई उम्मीद लगा रही थीं कि कभी वो इस ज़मीन की मालकिन बन पाएंगी.
प्लेबैक आपके उपकरण पर नहीं हो पा रहा
कर्ज़ और बीमारी ने किया बुरा हाल
आख़िरकार कड़ी मेहनत के बाद उनकी कोशिशें रंग लाई हैं और अब वह बिना चिंता के इस ज़मीन पर खेती कर सकती हैं.
दूर हुई सभी चिंताएं
लेखपाल से ये काग़ज़ पाने के बाद शेखुबाई उस ज़मीन पर पहुंची जिसके लिए वह ये संघर्ष कर रहीं थीं.
काग़ज़ों को लेकर उन्होंने ज़मीन पर अपना सिर रख दिया. ये शेखुबाई की लंबी ज़िंदगी में ख़ुशी का एक पल था.
काग़ज़ात लेने के बाद वह कहती हैं, “हमें उस ज़मीन के काग़ज़ मिल गए हैं जिस पर हमारा हक़ था. मैं अब ख़ुश हूं. मुझे अब कोई चिंता नहीं है.”
पिछले साल शेखुबाई ने अपनी इस ज़मीन पर मूंगफली लगाई थी.
वह कहती हैं, “पिछले साल पैरों में जख़्म होने की वजह से मैं ठीक से खेती नहीं कर पाई. इस साल मैं अपने उस खेत में मूंगफली लगाउंगी जिस पर मेरा अधिकार है.”
काग़ज़ात मिलने से ख़ुश शेखुबाई ने अपने खेत में काम करना भी शुरू कर दिया है.