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क्या सबसे अच्छे लोकसभा स्पीकर पीएम संगमा थे?

WikiFX
| 2019-06-18 13:47

एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Imagesलोकसभा अध्यक्ष के पद पर सत्तारुढ दल के सदस्य का ही निर्वाचन होता है. इसी परं

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लोकसभा अध्यक्ष के पद पर सत्तारुढ दल के सदस्य का ही निर्वाचन होता है. इसी परंपरा के मुताबिक पहली लोकसभा यानी 1952 से लेकर 1991 में दसवीं लोकसभा तक तो सत्तारूढ दल का सदस्य ही इस पद के लिए निर्वाचित होता रहा.

लेकिन जब से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, यह परंपरा टूटी और कई मौके ऐसे आए हैं, जब इस पद पर सत्तारूढ दल के बजाय उसके सहयोगी या सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले दल के सदस्य को इस पद के लिए चुना गया.

लोकसभा अध्यक्ष चाहे जिस भी दल का सदस्य चुना जाए, लेकिन माना जाता है कि चुने जाने के बाद वह दलगत राजनीति से ऊपर उठ जाता है, और वह अपनी पार्टी के हित-अहित की जगह संसद की मर्यादा का रक्षक बन जाता है.

उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन दलीय हितों और भावनाओं से ऊपर उठकर करते हुए विपक्षी सदस्यों के अधिकारों का भी पूरा संरक्षण करेगा.

इसी मान्यता के चलते आदर्श स्थिति यही मानी गई कि लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से होना चाहिए. इसी भावना के अनुरूप 1952 में गठित पहली लोकसभा के अध्यक्ष कांग्रेस के गणेश वासुदेव मावलंकर का चुनाव निर्विरोध हुआ. 1956 में उनके निधन के बाद शेष कार्यकाल के लिए उनके स्थान पर कांग्रेस के ही अनंतशयनम अयंगार का चुनाव भी निर्विरोध हुआ.

इससे पहले तक अयंगार लोकसभा उपाध्यक्ष थे. 1957 में दूसरी लोकसभा के अध्यक्ष भी अयंगार ही चुने गए. इस बार भी उनका निर्वाचन निर्विरोध ही हुआ. 1962 में तीसरी लोकसभा में सरदार हुकुम सिंह और चौथी लोकसभा में नीलम संजीव रेड्डी भी अध्यक्ष पद पर निर्विरोध निर्वाचित हुए. इन सभी लोकसभा अध्यक्षों का सदन की कार्यवाही के दौरान सरकार की ओर झुकाव होते हुए भी उनकी भूमिका को कमोबेश निर्विवाद ही माना गया.

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मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भाजपा सांसद ओम बिड़ला (तस्वीर में दाईं ओर) लोकसभा अध्यक्ष हो सकते हैं

हालांकि तीसरी लोकसभा तक तो संख्या बल के मामले में विपक्ष की स्थिति सत्ता पक्ष के मुकाबले बेहद कमजोर थी, लेकिन कम संख्या में होते हुए भी विपक्षी बेंचों पर प्रतिभा का अभाव नहीं था. उस दौर में एके गोपालन, श्रीपाद अमृत डांगे, प्रो. हीरेन मुखर्जी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, नाथ पई, किशन पटनायक, महावीर त्यागी, मीनू मसानी, अटल बिहारी वाजपेयी, हरिविष्णु कामत जैसे दिग्गज विपक्ष में थे जिनका अध्ययन कक्ष के साथ ही सड़क यानी जनता से भी गहरा नाता था.

ये सभी दिग्गज पूरी तैयारी के साथ सदन में आते थे इसलिए अध्यक्ष भी न तो एक सीमा से अधिक सत्तापक्ष का बचाव नहीं कर पाते थे और न ही सदन की कार्यवाही के नियमों की मनमानी व्याख्या कर विपक्षी सदस्यों को मुद्दे उठाने से रोक पाते थे. विपक्षी सदस्य भी नियमों को लेकर इतने सचेत रहते कि कई मौकों पर वे अध्यक्ष की व्यवस्था को चुनौती भी देते थे और अध्यक्ष को भी मजबूर होकर उनकी दलील स्वीकार करनी पडती थी.

इस सिलसिले में तीसरी लोकसभा के बाद के हिस्से का एक वाकया बेहद दिलचस्प है. छत्तीसगढ में बस्तर की आदिवासी रियासत के पूर्व महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय थे. 1966 में आदिवासियों के एक आंदोलन का नेतृत्व करते हुए पुलिस की गोली से उनकी मौत हो गई थी. इस मामले को डॉ. लोहिया ने लोकसभा में उठाया. तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह ने कहा कि यह मामला कानून व्यवस्था से संबंधित है और राज्य सरकार के तहत आता है, इसलिए इसे यहां नहीं उठाया जा सकता.

अध्यक्ष की इस व्यवस्था पर मधु लिमये ने कहा कि कानून-व्यवस्था का मामला जरूर राज्य के अंतर्गत आता है लेकिन आदिवासी कल्याण का मामला केंद्र सरकार से संबंधित है. बस्तर में आदिवासियों पर जुल्म हुआ है, आंदोलन और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के उनके मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, इसलिए यह मामला यहां उठाया जा सकता है.

लिमये की दलील का विपक्ष के अन्य सदस्यों ने भी समर्थन किया. अंतत: अध्यक्ष को अपनी व्यवस्था वापस लेते हुए भंजदेव की हत्या से संबंधित मामले पर बहस की अनुमति देना पडी.

चौथी लोकसभा (1967) में कांग्रेस के नीलम संजीव रेड्डी अध्यक्ष चुने गए. हालांकि उस लोकसभा में संख्या बल के लिहाज से विपक्ष भी काफी मजबूत स्थिति में था, लेकिन फिर भी रेड्डी का निर्वाचन निर्विरोध ही हुआ. वे महज दो साल ही इस पद पर रहे, क्योंकि 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित होने पर उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था. इस पद पर उनका भी कार्यकाल कमोबेश निर्विवाद ही रहा.

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मधु लिमये ने अपने तर्कों से लोकसभा अध्यक्ष को आदिवासियों के मुद्दे पर बहस की अनुमति देने के लिए मजबूर कर दिया था

उनकी जगह कांग्रेस के ही गुरुदयाल सिंह ढिल्लों अध्यक्ष चुने गए. वे चौथी लोकसभा के शेष कार्यकाल तक अध्यक्ष रहे और उसके बाद पांचवीं लोकसभा के भी अध्यक्ष चुने गए. वे पांचवीं लोकसभा के उत्तरार्ध तक इस पद पर रहे और दिसंबर 1975 में इस्तीफा देकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए. उनके स्थान पर बलिराम भगत लोकसभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और छठी लोकसभा का गठन होने तक इस पद पर रहे.

ढिल्लों और भगत का कार्यकाल औसत दर्जे का माना गया. कई मौके ऐसे आए जब उन पर सरकार की रबर स्टैंप होने का आरोप भी लगा.

नीलम संजीव रेड्डी

1977 में छठी लोकसभा अस्तित्व में आई. इस लोकसभा का चेहरा बिल्कुल बदला हुआ था. पहली बार कांग्रेस विपक्ष में थी और पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी सत्ता में. प्रारंभ में जनता पार्टी की ओर नीलम संजीव रेड्डी का नाम लोकसभा अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित हुआ और वे निर्विरोध चुन लिए गए लेकिन इस बार भी वे महज चार महीने ही इस पद पर रहे. जुलाई 1977 में वे राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए.

इसके बाद उनकी जगह सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे केएस हेगड़े लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए. हेगड़े का कार्यकाल बेहद चुनौती भरा रहा लेकिन उनकी भूमिका निर्विवाद रही.

बलरम जाखड़

चूंकि छठी लोकसभा अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किए बगैर ही भंग हो गई थी, लिहाजा 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और सातवीं लोकसभा अस्तित्व में आई. इस लोकसभा के अध्यक्ष बलराम जाखड़ चुने गए. वे पूरे कार्यकाल तक इस पद पर रहे और आठवीं लोकसभा में भी उन्होंने यही दायित्व संभाला. इस प्रकार वे लगातार दस वर्षों तक इस पद पर रहने वाले पहले लोकसभा अध्यक्ष हुए.

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बलराम जाखड़

उनका पहला कार्यकाल जितना निर्विवाद रहा, दूसरा कार्यकाल उतना ही विवादों से भरा रहा. आठवीं लोकसभा के हर सत्र में उन पर पक्षपात के आरोप लगते रहे.

1989 में नौवीं लोकसभा अस्तित्व में आई. इसी लोकसभा से देश में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हुआ और केंद्र में पहली बार गठबंधन सरकार बनी. समाजवादी नेता रवि राय सत्तारूढ जनता दल की ओर इस लोकसभा के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए. उनका कार्यकाल बेहद छोटा और चुनौतीपूर्ण रहा, लेकिन कोई विवाद उनके साथ नत्थी नहीं हो सका.

1991 में देश ने फिर मध्यावधि चुनाव का सामना किया और दसवीं लोकसभा वजूद में आई. इस लोकसभा में सत्तारूढ कांग्रेस की ओर से शिवराज पाटिल लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए. उनका भी चुनाव निर्विरोध हुआ लेकिन इस पद पर उनकी भूमिका औसत दर्जे की ही मानी गई.

पीए संगमा

1996 में ग्यारहवीं लोकसभा का चुनाव हुआ. केंद्र में एक फिर गठबंधन सरकार बनी. इस सरकार को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था. इस लोकसभा में अध्यक्ष के निर्वाचन में एक नया प्रयोग हुआ. सत्तारूढ दल या मोर्चे ने यह पद अपने पास न रखते हुए सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस को दिया. कांग्रेस की ओर से पूर्वोत्तर के आदिवासी नेता पीए संगमा ग्यारहवीं लोकसभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. हालांकि वे महज दो वर्ष ही इस पद पर रहे और लोकसभा भंग हो गई लेकिन वे पहले ऐसे अध्यक्ष रहे जिससे सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को कभी कोई शिकायत नहीं रही.

उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक सदन की कार्यवाही का संचालन किया और एक तटस्थ अध्यक्ष के रूप में अपनी छाप छोडी. संगमा की एक विशेषता यह भी रही कि हिंदी भाषी न होते हुए भी सदन की कार्यवाही का संचालन करते वक्त उन्होंने ज्यादातर समय हिंदी में ही व्यवहार किया. उनके मुंह से हिंदी सुनना सदस्यों और सदन की कार्यवाही देखने वाले अन्य लोगों को भी बड़ा रूचिकर लगता था.

जीएमसी बालयोगी

1998 में हुए मध्यावधि चुनाव से बारहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई. केंद्र में इस भाजपा की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी. इस सरकार ने भी पिछली संयुक्त मोर्चा सरकार की शुरू की हुई परंपरा को जारी रखते हुए लोकसभा अध्यक्ष का पद अपने पास रखते हुए अपनी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही दल तेलुगू देशम पार्टी को दिया. जीएमसी बालयोगी निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए. उनके रूप में देश की सबसे बडी पंचायत को पहली बार दलित समुदाय का अध्यक्ष मिला.

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पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा

बारहवीं लोकसभा का कार्यकाल भी महज एक साल का ही रहा. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर महज एक वोट से गिर गई. अध्यक्ष पद पर बैठे बालयोगी चाहते तो उस समय कांग्रेस के सदस्य गिरिधर गोमांग को, जो कि उस समय ओडिशा के मुख्यमंत्री भी थे, मतदान में शामिल होने से रोक कर या अध्यक्ष के रूप में अपने निर्णायक वोट का इस्तेमाल कर सरकार को गिरने से बचा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

असमय सरकार गिरने की वजह से देश को 1999 में फिर मध्यावधि चुनाव का सामना करना पडा. तेरहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई. वाजपेयी की अगुवाई में फिर गठबंधन सरकार बनी और बालयोगी ही लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए लेकिन इस बार भी वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और मार्च 2002 में एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. उनके स्थान पर सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल शिवसेना के मनोहर जोशी लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए.

मनोहर जोशी की राजनीतिक पृष्ठभूमि को देखते हुए लोकसभा अध्यक्ष की उनकी भूमिका को लेकर कई तरह की आशंका जताई गई थीं, लेकिन उन्होंने पीए संगमा और जीएमसी बालयोगी की परंपरा का निर्वाह करते हुए बेहद कुशलता और तटस्थता के साथ अपने दायित्व का निर्वाह किया तथा सारी आशंकाओं को निर्मूल साबित किया.

सोमनाथ चटर्जी

तेरहवीं लोकसभा ने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया और 2004 में चौदहवीं लोकसभा के चुनाव हुए. इस लोकसभा में भी अध्यक्ष पद को लेकर पुराने प्रयोग का दोहराव जारी रहा यानी सत्तारूढ कांग्रेस ने लोकसभा अध्यक्ष का पद अपने पास न रखते हुए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को दिया. सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के अध्यक्ष बने.

देश के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब कोई खांटी वामपंथी नेता इस पद पर बैठा था. लंबा संसदीय अनुभव रखने वाले चटर्जी का राजनीतिक कद चूंकि काफी ऊंचा था, लिहाजा कई बार हंगामे को नियंत्रित करने के लिए वे हेडमास्टर जैसी भूमिका में भी आ जाते थे. विपक्षी दल भाजपा के कुछ सदस्यों ने कई मौकों पर उन पर पक्षपात करने का आरोप भी लगाया लेकिन कुल मिलाकर उन्हें एक गरिमामय अध्यक्ष ही माना गया.

मीरा कुमार

सोमनाथ चटर्जी पूरे पांच साल तक लोकसभा के अध्यक्ष रहे. 2009 में पंद्रहवी लोकसभा का गठन हुआ तो सत्तारूढ गठबंधन की अगुवाई कर रही कांग्रेस ने इस बार यह पद अपने पास ही रखा और मीरा कुमार के रूप में लोकसभा को पहली महिला अध्यक्ष मिलीं. उनका कार्यकाल भी बेहद चुनौती भरा रहा. लोकसभा कोई सत्र ऐसा नहीं रहा जब विपक्ष ने हंगामा और वॉकआउट न किया हो. इसके बावजूद मृदुभाषी मीरा कुमार पूरे संयम के साथ अपना दायित्व निभाती रहीं. हालांकि विपक्ष ने पक्षपात के आरोपों से उन्हें भी बरी नहीं किया.

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सोमनाथ चटर्जी

पांच साल बाद यानी 2014 में सोलहवीं लोकसभा को भी सुमित्रा महाजन के रूप में लगातार दूसरी बार महिला अध्यक्ष मिलीं. हर लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता का पलड़ा थोड़ा बहुत सत्तारुढ दल और सरकार की ओर ही झुका रहा है. महाजन भी अपवाद नहीं रहीं. लोकसभा के इतिहास में सुमित्रा महाजन से पहले तक बलराम जाखड़ ही सर्वाधिक पक्षपाती और विवादास्पद लोकसभा अध्यक्ष के तौर पर जाने जाते रहे, लेकिन सुमित्रा महाजन ने अध्यक्ष के रूप में अपनी भूमिका से जाखड़ को भी पीछे छोड दिया.

लोकसभा अध्यक्ष होते हुए भी सदन में हो या सदन के बाहर, उनका व्यवहार प्रतिबद्ध पार्टी कार्यकर्ता जैसा ही रहा. सदन में विपक्षी सदस्यों के भाषणों के दौरान टोका-टोकी करने और उनकी खिल्ली उड़ाने में भी वे सत्तापक्ष के अन्य सदस्यों से पीछे नहीं रहीं. कई बार मंत्रियों को सवालों में घिरता देख खुद उनके बचाव में सामने आईं और प्रश्न, प्रतिप्रश्न तथा पूरकप्रश्न पूछने वाले विपक्षी सदस्यों को नियमों की मनमानी व्याख्या करते हुए रोका.

सदन में विपक्षी नेताओं पर प्रधानमंत्री के कर्कश और विवादास्पद कटाक्षों पर उन्होंने सत्तापक्ष के सदस्यों की तरह मेज तो नहीं थपथपाई, लेकिन अपनी मंद हंसी या मुस्कराहट के जरिए अपनी प्रसन्नता भी नहीं छुपाई.

पार्टी के अंदरुनी समीकरणों और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की भाव-भंगिमा को समझते हुए कई सार्वजनिक अवसरों पर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति को भी उपेक्षापूर्वक नजरअंदाज करने में उन्होंने संकोच नहीं किया. कुल मिलाकर लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका औसत से भी हल्के स्तर की रही.

अब सत्रहवीं लोकसभा अस्तित्व में आ चुकी है और उसे इंतजार है अपने अध्यक्ष का. इतिहास नए अध्यक्ष की भूमिका का आकलन पांच साल के बाद करेगा.

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